विकास की इस अंधी दौड़ में जो भागमभाग मची है उसमे हमारे सभ्य होने की रफ़्तार को बड़ा नुकसान पहुंचाया है। बल्कि सचाई तो यह है कि हम जितना ही विकास की ओर आगे निकले उतना ही हम सभ्यता के मामले पिछड़ गए हैं। मकान बड़े होते गए और हमारे दिल छोटे। बाजार को मॉलों और ऑनलाइन बाजारोँ ने निगल लिया है। बैंकों ने किसानों को मजदूर बना दिया तो मशीनों ने मजदूरों को परदेसी बना दिया।विज्ञान ने मृत्यु दर को कम किया तो जिंदगी ने संसाधनों को। जनसँख्या का भार न केवल हमारे अवसरों को कम किया है बल्कि हमारे लिए एक बेरोजगारों की फौज खड़ी कर रहा है। जिन नवयुवकों को अपनी ऊर्जा अपने परिवार के लिए अपने देश के लिए लगानी चाहिए वो अपनी ताकत सडकों पर दिखा रहे हैं। और क्यों नहीं ऊर्जा तो कहीं संचित नहीं होगी वो तो या तो निर्माण करेगी या विनाश करेगी। चारों ओर निराशा है हताशा है लोग जी तो रहे हैं पर शायद जिंदा नहीं हैं। स्कूल है पर शिक्षक नहीं, हॉस्पिटल हैं पर डॉक्टर नहीं, न्यायलय है पर न्यायधीश नहीं। एक एक मुकदमे को निपटने में नयी पीढ़ी जवान हो जाती है। न्याय मिलने में इसी देरी का लाभ उठा कर तथा अन्य व्याप्त भ्रष्टाचारों का लाभ उठाकर अपराधी मौज़ करते हैं और छूट जाते हैं जबकि पीड़ित के हाथ लगती है निराशा। यह निराशा केवल पीड़ित को अवसादग्रस्त नहीं करती बल्कि पूरे समाज को तोड़ देती है। आक्रोशित कर देती है, गुस्से से भर देती है। यह स्थिति लोगों का न्यायलय पर से भरोसा कम करती है। स्थिति कितनी भयावह है इसका अंदाज़ा इन आकड़ों से लगाया जा सकता है। देश में करीब 3.30 लाख किसानों ने कर्ज की वजह से आत्महत्या कर ली है, करीब एक साल में 34651 महिलाओं और बच्चों से 13766 बलात्कार के मामले दर्ज होते हैं करीब 7 करोड़ लोग बेरोजगार हैं तो करीब 19.5 करोड़ लोग भूखे सोते हैं साढ़े छह करोड़ बच्चे कुपोषित हैं करीब एक प्रतिशत लोगों के पास साठ प्रतिशत सम्पति है और करीब छह करोड़ लोग निराशा के शिकार है। न्यायालयों की स्थिति तो और भी बुरी है करोड़ो मुकदमे लंबित पड़े हुए हैं सुनवाई के लिए। पुलिस प्रशाशन की स्थिति ऐसी है कि अपराध की सूचना मात्रा दर्ज कराने में पसीने आ जाये। आज हम ऐसी स्थिति में जी रहे हैं जहाँ लोग पुलिस के आने से राहत के बजाय भय महसूस करते हैं। लोग कुंठित हैं, हताश हैं, निराश हैं, परेशान हैं आक्रोश में हैं गुस्से में हैं, भ्रमित हैं। समाज में बारूद भरा हुआ है बस पलीता लगाने की देर है। ऐसे निराशा से भरे हुए, बेरोजगार या अपर्याप्त रोजगार वाली असंतुष्ट भीड़ किसी बम से कम नहीं होती। अब इसमें धर्म की कट्टर सोच की चिंगारी लगा दी जाये या राजनीती का पलीता लगा दिया जाये चाहे आरक्षण के समर्थन के नाम पर या उसके विरोध के नाम पर गाय के नाम पर चाहे सूअर के नाम पर, इसका फटना तो तय है। अब इस स्थिति का लाभ उठाकर कुछ लोग अपना एजेंडा चलाने लगते हैं। निराश,हताश और अवसादग्रस्त लोगों की इस भीड़ की इस विशाल शक्ति का लाभ उठाकर वे अकसर कानून और व्यवस्था की धज़्ज़ी उड़ाते हैं। फिर चाहे वह राम रहीम की गिरफ़्तारी का प्रकरण हो या गुजरात और हरियाणा में आरक्षण आंदोलन की आड़ में तोड़ फोड़ और दंगा फसाद हो , हर जगह इस पागल हाथी के सामान भीड़ के गुस्से को देखा गया। भीड़ तंत्र की इस शक्ति को कुछ लोगों ने पहचाना और इस भीड़ की शक्ति का प्रयोग अपने लाभ के लिए करने लगे। कुछ लोग तो इसी भीड़ तंत्र की आड़ में अपने ही लोगों द्वारा कुछ ख़ास लोगों को टारगेट कर के मार देते हैं। या तो फिर भीड़ को नफरत की आग में खूब पकाते हैं और भीड़ अपना काम कर देती है। अब चाहे गाय के नाम पर हो चाहे बच्चा चोर के नाम पर हो वे अपना काम इस भीड़ बम के द्वारा करा ले जाते हैं यानी समाज में नफ़रत की चिंगारी फैला देते हैं।
पिछले कुछ सालों से इस तरह की घटनाये बढ़ी हैं। अख़लाक़ हो, पहलु खान हों रअकबर खान हो भीड़ का बखूबी इस्तेमाल किया गया। इसे इस्तेमाल करना इस लिए कहा गया क्योंकि यह स्वाभाविक मॉब लिंचिंग नहीं है यहाँ भीड़ जानती है किसे मारना है और किसे नहीं।
मॉब लिंचिंग क्या है What is Mob Lynching
मॉब लिंचिंग यानि भीड़ के द्वारा की गयी हत्या वास्तव में समाज के मुँह पर एक धब्बे या कालिख के सामान है जिसे किसी भी शिक्षित और सभ्य समाज के द्वारा एक्सेप्ट नहीं किया जा सकता। यह एक तरह से अराजकता वाली स्थिति है जहाँ ताकत ही न्याय का पर्यावाची होता है। मॉब लिंचिंग वास्तव में भीड़ के द्वारा की गयी हत्या को कहते हैं जिसमे न तो आरोपित को अपना पक्ष रखने की आज़ादी होती है न तो मुकदमे की प्रक्रिया होती है और न न्याय की प्रतीक्षा। क्षण भर में फैसला हो जाता है और आरोपित की हत्या कर दी जाती है।
मॉब लिंचिंग का इतिहास
दुनिया में मॉब लिंचिंग की प्रथा पुरानी है।वास्तव में मॉब लिंचिंग शब्द अमेरिका के वर्जिनिया प्रान्त के जस्टिस चार्ल्स लिंच(1736-96) से लिया गया है जो अमेरिका के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अपने कठोर दंड के लिए जाने जाते थे। वे अतिरिक्त कानूनी मुकदमो की अध्यक्षता करते थे। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में अमेरिका में इस तरह की घटनाएं बहुतायत में होती थी। उनदिनों इसके शिकार अश्वेत लोग होते थे। 1882 से 1968 के बीच वहां लगभग 4742 लिंचिंग के केस आये थे। नाइजेरिआ में भी मॉब लिंचिंग एक गंभीर समस्या बन कर उभरी है। भारत में मॉब लिंचिंग की आखरी घटना 1950 में दर्ज की गयी थी। पर इधर कुछ वर्षों से हमारे देश ने इस तरह की कई घटनाओं को झेला है। 2006 में महाराष्ट्र में भैयालाल भोतमांगे समेत चार लोगों की लिंचिंग की गयी। 2017 में बल्लभगढ़ में सीट विवाद में जुनैद, 2016 में झारखण्ड के चतरा जिले में इम्तेयाज़ खान, दिल्ली में रिक्शा चालक रविंद्र कुमार की पीट पीट कर हत्या की गयी वहीँ दिमापुर में 2015 में फरीद खान जो की बलात्कार का आरोपी था उसे जेल से खींच कर उसकी हत्या की गयी, 2015 में दादरी में अख़लाक़ की हत्या 2017 में पुलिस उपाधीक्षक अयूब पंडित की हत्या, पहलु खान की हत्या रअक्बर खान की हत्या, सिलसिला बहुत लम्बा है।
भीड़ द्वारा इस तरह से हत्या करने के पीछे अन्य कारणों के अलावा हमारा जातीय उन्माद, धार्मिक अभिमान तथा कट्टरता,जमीन के झगड़े,बलात्कार, अन्य जाति धर्म में शादी तथा दूसरों के प्रति हेय दृष्टि या नफरत भी है। ये सारी चीज़ें हमें असहिष्णुता की ओर ले जाती है और हम तय करने लगते हैं कौन क्या खायेगा क्या पहनेगा क्या बोलेगा और जो इस फ्रेम में फिट नहीं होते वे हमारी नज़रों में वे देशद्रोही या अपराधी हो जाते हैं। इस असहिष्णुता की वजह से पूरी कौम के प्रति वही माइंड सेट बन जाता है और इसका परिणाम जो भी होता है बुरा ही होता है। कई बार विरोध करने वाली चीज़े बहुत ही मामूली होती है पर उसका आधार बनाकर उन लोगों को टारगेट किया जाता है। इस तरह की मुहीम में सोशल मीडिया का बहुत ही योगदान रहा है फेसबुक और व्हाट्सअप इस तरह का माइंडसेट तैयार करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। पिछली कई घटनाओ में तो व्हाट्सप्प की वजह से ही लोगों ने मॉब लिंचिंग की। इसमें कई लोग बच्चा चोर समझ कर मारे गए।
मॉब लिंचिंग तो इस पुरे भीड़ बम का एक हिस्सा मात्र है परन्तु इस पूरी भीड़ का दुरुपयोग भविष्य में कुछ लोग भारत में दंगा भड़काने और गृहयुद्ध करवाने में भी कर सकते हैं। जरुरत आज इस बात की है कि इस विषय पर समाजशास्त्रियों,मनोवैज्ञानिकों, कानूनविदों,साइबर एक्सपर्टों और धर्म के जानकारों को बैठ कर गहन मंथन करने की और इस भीड़ बम को डिफ्यूज करने की। यह तभी संभव होगा जब हम एक दूसरे को समझेंगे,जानेगे, भरोसा करेंगे तथा अपनी तर्कशक्ति का प्रयोग करेंगे।
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