हिन्दू धर्म में सोलह संस्कार क्या हैं


भारतीय जीवन दर्शन में संस्कारों का बहुत महत्त्व है। माना जाता है कि ये संस्कार मनुष्य को बलशाली, यशस्वी, दीर्घायु और ओजपूर्ण बनाते हैं। इसके लिए हिन्दू या सनातन धर्म में सोलह संस्कारों की व्यवस्था की गयी है।  इनमे से तीन संस्कार मनुष्य के जन्म के पूर्व तथा एक संस्कार उसकी मृत्यु के पश्चात किया जाता है।
संस्कार वास्तव में मनुष्य का एक जीवन चक्र होता है जिससे होकर सभी को गुजरना है। यह जीवन के अगले क्रम में जाने की पूर्व तैयारी होती है जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को बांधने की एक प्रक्रिया है जिससे कि व्यक्ति का जीवन सरल और सुलभ हो सके। यह एक जिम्मेदार नागरिक बनाने की एक प्रक्रिया है। इसके लिए कुछ धार्मिक अनुष्ठान किये जाते हैं जिनमे कुछ धार्मिक मन्त्रों और कुछ रीतिरिवाजों के माध्यम से इसे संपन्न कराया जाता है। इसके साथ ही व्यक्ति के आचरण के लिए भी कुछ निर्देश होते हैं।
वेदों में संस्कार का वर्णन नहीं है परन्तु इसकी कुछ प्रक्रियाओं की चर्चा की गयी है। बाद के ग्रंथों में संस्कारों की आवश्यकता पर बल दिया गया है। गौतम स्मृति में चालीस संस्कारों की चर्चा की गयी है जबकि महर्षि अंगिरा ने पच्चीस संस्कारों का वर्णन किया है। व्यास स्मृति में सोलह संस्कार बताया गया है। कई अन्य धर्मशास्त्रों में भी सोलह संस्कार की ही चर्चा की गयी है।
आईये देखते हैं ये सोलह संस्कार क्या हैं

गर्भाधान संस्कार : यह मनुष्य का पहला संस्कार है। इसे मनुष्य के जन्म के पूर्व किया जाता है। गृहस्थ जीवन का सबसे मुख्य उद्देश्य संतानोत्पति होता है। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए गर्भधारण संस्कार किया जाता है किन्तु इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है आने वाली संतान उत्तम हो, गुणी हो तथा यशश्वी हो। इस संस्कार को पूरा करने के लिए माता पिता को अपने तन मन की पवित्रता के साथ यह संस्कार किया जाना चाहिए। चुकि यह मनुष्य का पहला संस्कार है अतः इसमें बहुत ही सावधानी बरतनी चाहिए। इसके लिए माता पिता दोनों को प्रसन्न और उत्साह से परिपूर्ण होना चाहिए।  इस संस्कार को करने के पूर्व माता पिता को उत्तम भोजन करना चाहिए तथा  मन  पवित्र  तथा शांत होना चाहिए। तथा इस संस्कार को करने के पहले गुरुजनों के साथ उन्हें अच्छी संतान के लिए यज्ञ करना चाहिए।
पुंसवन संस्कार : यह संस्कार गर्भाधान के दूसरे या तीसरे माह में किया जाता है। गर्भस्थ शिशु के मांसासिक विकास के लिए इस संस्कार को आवश्यक माना गया है। ऐसा माना जाता है कि शिशु के मष्तिस्क का विकास दूसरे और तीसरे माह से शुरू हो जाता है। अतः उत्तम संतति को जन्म देने के लिए इस संस्कार को किया जाता है।  यह संस्कार प्रायः उत्तम बालक के लिए किया जाता है। 

सीमन्तोन्नयन संस्कार : यह संस्कार गर्भ धारण के चौथे , छठवें और आठवें महीने में किया जाता है।  गर्भस्थ शिशु इस समय सीखने की प्रक्रिया में होता है अतः शिशु  में  उत्तम गुण , स्वाभाव  और  कर्म   का समावेश हो  इसके लिए  इस संस्कार को  किया जाता है। इसके लिए माँ  इस दौरान  उसी प्रकार का आचरण , रहन सहन और व्यवहार करती है।  इस संस्कार के दौरान माँ को न केवल  तन से बल्कि मन से भी  अपने  आपको  शुद्ध, पवित्र , शांत और प्रसन्नचित  रहना चाहिए। माँ को इस दौरान  अच्छे विचार रखने  चाहिए और  अच्छी किताबों का अध्ययन करना चाहिए। 


जातकर्म संस्कार : यह मनुष्य के जन्म के बाद होने वाला प्रथम संस्कार है।  इसमें बच्चे का जन्म होते ही नाल विच्छेदन के पूर्व उसे शहद और घी चटाया जाता है तथा उसके आसपास वैदिक मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है। इसके लिए स्वर्णखंड से दो बूँद घी तथा छह बून्द शहद का  मिश्रण  शिशु को वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के साथ चटाया जाता है।इसके बाद पिता यज्ञ करता है जिसमे नौ विशिष्ट मन्त्रों का जाप कर शिशु के बुध्दिमान,स्वास्थ्य और दीर्घायु होने की कामना करता है। जातकर्म संस्कार करने से शिशु के कई प्रकार के दोष दूर होते हैं। यह सब करने के बाद माँ शिशु को स्तनपान कराती है। 

नामकरण संस्कार : शिशु के जन्म के 11 वे दिन उसका नामकरण संस्कार किया जाता है।इसे ग्यारहवें दिन करने की वजह यह है कि जन्म से प्रथम दस दिन विद्वानों ने सूतक माना है जिसमे कोई शुभ कार्य नहीं होता है।  इसी दिन मनुष्य को अपना नाम मिलता है। हमारे मनीषियों के अनुसार नामकरण संस्कार का मनुष्य के जीवन में बहुत महत्त्व है इसका हमारे भावी जीवन पर असर पड़ता है।यह मनुष्य के व्यक्तित्व पर प्रभाव डालता है। यही कारण है कि नामाकरण करते समय खूब सोच विचार कर शिशु का नाम रखना चाहिए।

निष्क्रमण संस्कार : निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना , यही इस संस्कार का अभिप्राय भी है। शिशु का शरीर कोमल होता है और बाहरी वातावरण अर्थात धुप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता। इसी लिए तीन माह तक उसे घर में बहुत ही सावधानी पूर्वक रखना चाहिए। चौथे माह में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का प्रावधान है। इस  संस्कार  में शिशु बाहरी वातावरण और समाज से परिचित होता है। इस दिन शिशु को देवी देवताओं के दर्शन तथा उनसे  उसके दीर्घायु और यशश्वी जीवन के लिए प्रार्थना की जाती है। 

अन्नप्राशन संस्कार : यह संस्कार छठे या सातवें महीने में किया जाता है जब शिशु के दांत निकलने का समय होता है। अभी तक शिशु का पोषण माँ के दूध द्वारा होता है किन्तु इस संस्कार के बाद उसे सरलता से पचने वाले अन्न भोजन दिया जाता है। इसके लिए शुभ नक्षत्र और शुभ दिन देखकर खीर या मिठाई से अन्नप्राशन करना चाहिए। 

चूड़ाकर्म संस्कार : वास्तव में यह मुंडन संस्कार होता है। इसे पहले, तीसरे, पांचवे या सातवें वर्ष में किया जाना चाहिए। इसमें जन्म के समय के अपवित्र बाल को हटा कर शिशु का मुंडन किया जाता है। इससे बालक के कई दोषों का निराकरण किया जाता है। इससे बालक का सर मजबूत होता है और जन्म के पहले के बाल जिनमे कई कीटाणु चिपके होते हैं उनका भी सफाया होता है। 


Mundan or removal of birth hairs in Hinduism is praised as actual birth and is a huge cultural event

कर्णवेध संस्कार : इस संस्कार को करने की आयु  छह माह से लेकर पांच वर्ष तक निर्धारित की गयी है। इस संस्कार में बालक के  कानों में छिद्र किया जाता है।  इस संस्कार के लाभ के सम्बन्ध में अलग अलग विद्वानों का अलग अलग मत है।  कुछ ने माना है कि कान छेदने से राहु और केतु के बुरे प्रभाव बंद हो जाते हैं।  कुछ अन्य का कहना है कि इससे श्रवण शक्ति बढ़ती है तथा  यह एक तरह से  एक्यूपंक्चर होता है जिससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त प्रवाह  सही हो जाता है।  इसके साथ ही यह यौन शक्ति को भी बढ़ाता है।  सबसे स्पष्ट कारण  जो दीखता है वह यह कि  यह आभूषण पहनने  के लिए  किया जाता है। 

Baby girl in ear piercing ceremony

यज्ञोपवीत संस्कार  : इसे उपनयन या जनेऊ संस्कार भी कहते हैं।  उप  का अर्थ है  पास  और नयन  यानि  ले जाना।  इस संस्कार  द्वारा बालक को गुरु के पास ले जाने की प्रक्रिया की जाती है।  इस संस्कार के द्वारा  शिशु को  बल, ऊर्जा और तेज प्राप्त होता है।  जनेऊ में तीन सूत्र होते हैं  जो ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतिक  होते हैं।  इन तीन सूत्रों को बालक धारण करता है।  इस संस्कार में गायत्री मन्त्र को आत्मसात करने का प्रावधान किया जाता है।  यह प्रायः आठ वर्ष की उम्र में किया जाता है। इसके बाद ही बालक  को  वेद  और ब्रह्मचर्य की दीक्षा की जाती थी।  इस संस्कार का उद्देश्य संयमित  और आत्मिक विकास  के  लिए  बालक को  प्रेरित करना है। 


वेदारम्भ संस्कार : यह बालक को वेदों की शिक्षा देने की शुरुवात होता है।  इस संस्कार  के लिए सबसे उपयुक्त उम्र  पांच वर्ष मानी  गयी है।  लेकिन  इसे प्रायः यज्ञोपवीत  संस्कार के बाद ही शुरू करने की परंपरा रही है।  इसके लिए बालकों को गुरुकुल भेजा जाता था जहाँ वे वेदों और शास्त्रों का अध्ययन करते थे।  इस दौरान उन्हें ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना  होता था / यह संस्कार करने  का सबसे अच्छा समय बसंत पंचमी माना जाता है। 

केशान्त संस्कार : इस संस्कार में  बालकों  का  फिर से मुंडन किया जाता है।  विद्या अध्ययन  के पूर्व  इसे  करना चाहिए।  इससे  उनकी शुद्धि होती है  और उनका  मन  विद्याध्ययन  में  लगता है।  इस संस्कार  को  विद्याध्यन की समाप्ति पर भी किया जाता है  जब  बालक  विभिन्न  विषयों का अध्यन  करने के पश्चात  गुरुकुल  से गृहस्थाश्रम  जाने वाला होता है। 

समावर्तन संस्कार :  गुरुकुल में शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् व्यक्ति को फिर अपने घर समाज में लौटना होता है। समावर्तन का अर्थ पुनः लौटने से होता है।  गुरुकुल में ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए व्यक्ति समाज से एकदम कट जाता है। अतः उसे फिर से समाज में लौटने के लिए इस संस्कार के द्वारा मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार किया जाता है। इस संस्कार में भी केशान्त संस्कार होता है और युवक को आठ घड़ों के जल से स्नान कराया जाता है।  स्नान विशेष मंत्रोच्चार के साथ होता है। इसके बाद युवक  मेखला और दंड को छोड़ देता है। इसके बाद गुरु उसे स्नातक की उपाधि प्रदान करते हैं।  सुन्दर वस्त्र व आभूषण धारण करके वह गुरुजनों का आशीर्वाद ग्रहण करके अपने घर के लिए विदा होता था।  


विवाह संस्कार : हिन्दू धर्म में विवाह को महत्वपूर्ण और अनिवार्य संस्कार माना जाता है। उचित उम्र होने के पश्चात वर वधू धर्म के अनुसार विवाह करते हैं। यह सृष्टि के विकास के साथ साथ व्यक्ति के आध्यात्मिक और मानसिक विकास के लिए जरुरी होता है। यह संस्कार पच्चीस वर्ष की अवस्था में होता था। वैदिक काल के पूर्व जब समाज व विकसित नहीं था तो उस समय यौनाचार  और संतानोत्पत्ति का कोई नियम नहीं था जिससे उस समाज में यौन सम्बन्ध और संतानों की जिम्मेदारी से लेकर अन्य कई विसंगतियां आ जाती थी। हमारे पूर्वजों ने तब इन्हीं विसंगतियों को दूर करने हेतु तथा समाज को व्यवस्थित रखने हेतु विवाह नामंक संस्था की शुरुवात की। 

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वानप्रस्थ संस्कार : विवाह के पश्चात व्यक्ति गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियों को निभाते हुए व्यक्ति जब पचास वर्ष की आयु को प्राप्त करता है तब इस संस्कार को करने का समय आता है। इसमें मनुष्य को अपने घर परिवार की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त होकर वन की ओर प्रस्थान करना पड़ता था। इसके लिए उसे यज्ञ करते हुए संकल्प लेना पड़ता था कि अब वह सामाजिक जीवन से परे ईश्वर की शरण में ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करेगा। इस तरह जीवन बिताते हुए जब वह पचहत्तर वर्ष की अवस्था में पहुंच जाता है तब उसका संन्यास आश्रम शुरू होता है। अब वह एक स्थान पर न रह कर घूम घूम कर ज्ञान बांटने का काम करता है। 

अंत्येष्टि संस्कार : यह मनुष्य के जीवन के बाद होने वाला एकमात्र संस्कार है। वास्तव में मृत्यु के पश्चात मृत शरीर के निस्तारण की व्यवस्था है जिससे कि शरीर पुनः प्रकृति के पांच तत्वों में परिवर्तित हो जाय। मृत्यु के पश्चात मृत शरीर को नदी के किनारे ले जाकर उसे लकड़ी की चिता बनाकर अग्नि के हवाले किया जाता है।  इसमें वेद मन्त्रों के साथ उसके शरीर को अग्नि को समर्पित किया जाता है। इसे अंतिम या अग्नि परिग्रह संस्कार भी कहा जाता है। मान्यता है कि मनुष्य प्राण छूटने के बाद जब इस लोक को छोड़ देता तो उसे इस संस्कार के द्वारा मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति होती है। 
इस प्रकार हमारे मनीषियों ने मानव जीवन को व्यवस्थित करने और उसे सुचारु रुप से चलाने के लिए जिससे कि उसको , उसके परिवार को  और व्यापक रूप से पुरे समाज को लाभ और एक दिशा मिल सके, एक खाका तैयार किया था।  

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