एक गुरु जी थें। उनके दो शिष्य थे। गुरूजी दोनों शिष्यों में सामान रूप से ज्ञान बाटते थे। दोनों शिष्य भी खूब मन लगा कर ज्ञान अर्जन करते थे। इसके साथ ही दोनों शिष्य गुरूजी की खूब सेवा किया करते थे। गुरूजी को बहुत आराम था। लेकिन सब कुछ अच्छा होने के बावजुद एक कमी थी। दोनों शिष्यों में आपस में खूब ईर्ष्या की भावना थी। दोनों अपने अपने ज्ञान को आगे बढाकर एक दूसरे को पीछे न करके एक दूसरे की टांग खींच कर आगे बढ़ने का प्रयास करते रहते थे। हालाँकि गुरूजी इन बातों से अनभिज्ञ थे। समय बीतता गया। एक दिन एक शिष्य को किसी काम से अपने घर जाना पड़ा। अब सारा काम ,सारी सेवा दूसरे वाले शिष्य को करनी पड़ती थी। उसको अपने अलावा पहले वाले शिष्य के हिस्से का भी काम करना पड़ता था। वह मन ही मन बहुत खिन्न रहने लगा। पहले वाले शिष्य के जिम्मे का काम वह बेमन से करता था। अतः सारा काम अस्त व्यस्त होने लगा। आश्रम की सारी व्यवस्था गड़बड़ा गयी। गुरूजी कई बार उसे डाट भी देते थे। इस पर वह और खिन्न रहने लगा और अपने साथी के प्रति और ईर्ष्या की भावना से भर गया। अब वह और भी लापरवाह हो गया और अपने साथी के जिम्मे वाले कामो को या तो वो नहीं करता या बहुत ही लापरवाही से करता। गुरूजी की डाट भी बढ़ती गयी और अपने साथी के प्रति उसकी नफरत भी। इस तरह काफी दिन हो गए। एक दिन किसी बात पर उसे बहुत डाट सुननी पड़ी। उसने सोचा सब उसी साथी की वजह से हो रहा है। खुद तो घर जा कर मौज कर रहा है और मुझे उसका काम करना पड़ रहा है। उसके अंदर प्रतिशोध की भावना धधक रही थी। रात में गुरूजी ने उसे अपने पाव दबाने के लिए बुलाया। वह गुरूजी के पाव दबाने लगा। एक पाव दबाने के बाद गुरूजी ने उसे दूसरा पाव दबाने के लिए बोला जो उसका साथी दबाया करता था। नफ़रत और प्रतिशोध से पहले से ही भरे शिष्य के क्रोध का ठिकाना न रहा। उसने पाव दबाना शुरू किया और सोचने लगा यह मेरे दुश्मन के हिस्से का पैर है। मै उसके हिस्से का काम क्यों करूँ। सोचता सोचता उसने पैर खूब जोर से ऐठ दिया। गुरूजी बाप बाप चिल्लाने लगे। उसने गुरूजी का पैर तोड़ दिया। गुरूजी ने उसे बहुत डाटा। कुछ दिनों बाद पहला वाला शिष्य वापस आ गया। उसे सारी बातें पता चली। उसमे भी ईर्ष्या की भावना थी ही वह और बढ़ गयी। वह दूसरे वाले शिष्य बदला लेने के अवसर की ताक में रहने लगा। एक दिन दूसरा वाले शिष्य को किसी काम से कुछ दिनों के लिए बाहरजाना पड़ा। अब पहले वाले शिष्य को भी सब वही करना पड़ता था जो एक समय दूसरे वाले शिष्य को करना पड़ता था। वह जब भी दूसरे वाले शिष्य के हिस्से का काम करता , क्रोध से भर जाता। वह सोचने लगता कि मेरी अनुपस्थिति में मेरे साथी ने जब मेरा काम नहीं किया तो मैं उसका काम क्यों करूँ ? और एक दिन जब गुरूजी ने उससे अपने पाव दबाने के लिए कहा उसके अपने वाले हिस्से का पाव तो पहले से टूट चूका था सो गुरूजी के दूसरे वाले पैर जो दूसरा वाला शिष्य दबाया करता था उसे दबाना शुरू किया और थोड़ी देर बाद ऐठ कर तोड़ दिया। इस तरह से गुरूजी के दोनों पैर बेकार हो गए और गुरूजी ने उसे और दूसरे वाले शिष्य को उसके आने के बाद आश्रम से निकाल दिया। इस तरह से दोनों शिष्यों का जीवन बर्बाद हो गया।
Moral : इस कहानी से हमें यही शिक्षा मिलती है कि हमें ईर्ष्या और नफ़रत की भावना नहीं रखनी चाहिए। और आगे बढ़ने के लिए एक दूसरे की टांग न खींच कर ज्ञानार्जन के माध्यम से आगे बढ़ना चाहिए। हम आपसी रंजिश से न केवल अपना बल्कि पूरी टीम का नुकसान करते हैं। किसी भी टीम में मेरा काम तेरा काम की कोई जगह नहीं होती बल्कि टीम का लक्ष्य ही सब कुछ होता है।
0 टिप्पणियाँ